Thursday 6 August 2015

दोपहर का अँधेरा






यहाँ दिन का सघन उजाला है, जसमे लाशो की तरह भाव शून्य लोगो के चेहरे हैं
यहाँ , नाले हैं , नहर हैं , कुएं हैं पर सब सूखे हैं |
यहाँ क्रंदन है , भय है और अन्धो की तरह दिमाग की  टाल बतोल है

आगे कुछ मिल सकता है , अगर आगे कुछ हो
आगे कुछ हो अगर तो कोशिश एक बार फिर से करी जाएगी
अगर दो लाशे एक दुसरे से मिले तो जला सकती हैं एक दुसरे को अपनी आग से
आग भगाएगी , क्रंदन को , भय को
जलती हुयी आग की छाल्चालाती हुयी आवाज़ , तोडती है ख़ामोशी को अँधेरे को


                               

इस दोपहर के अँधेरे में , रौशनी का कहीं कोई  रास्ता नहीं दीखता
आखिरी बार , एक मुट्ठी खेत की मिटटी , धीरे धीरे फिसल गयी उंगलियों के रस्ते से
ये अखिरीर रास्ता , ये रस्सी का टुकड़ा और ये भय
दोपहर के अँधेरे से मुक्त होता , अंधेरो की रौशनी की तरफ
पीछे रह गया , क्रंदन , भय , बेबसी , बच्चो की , परिवार वालो की
और कुछ सरकारी कर्मचारियों की –

श्रीनिधि मिश्र
आत्महत्या करते किसानो को श्रधांजलि रूप समर्पित

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