वो सर्दी की शाम थी ,
कुहासा नहीं था
ढलता हुआ सूरज , गंगा की लहरों पे तैरता हुआ
सोना धीरे धीरे पिघले लोहे में तब्दील हो
रहा था
अस्सी की सीढियों से मैंने
देखा
उस बहते हुते धातु के पन्नो
में
उन पन्नो के भीतर दौड़ लगा
दी मैंने
मै अकेला उन मुस्कराते हुते
चेहरों से खुशिया तोड़ लेन को ललक गया
उन लहरों के भीतर सूरज की चिटकती धुप और चाँद की चितकी चांदनी देखि
अस्सी से गंगा की लहरू के
भीतर तक
मैंने देखा गंगा में आकाश
गंगा को ,
अथाह जल में अनंत व्योम को
उन मुस्कुराते हुए चेहरों
में अद्भुत प्रेम को
प्रक्रति और प्रेम से
सुन्दर कुछ भी नहीं है
अस्सी के किनारे मैंने
स्वर्ग तक की सैर कर ली
एक बार खुद से पुछा भी की
कौन है
जिससे हम बने हैं , कौन है
जिसने ये सब कुछ बनाया
कौन है जिसने लिखी गाथाये ,
इन पत्तो पर , पत्थरो पर , पानी पर
तैरते हुए पानी के भीतर ,
मैंने बात की उन स्वर्ग के
रहनुमाओ से
मैंने महसूस किया है जिंदगी
के सार को
स्वप्न को और वास्तविकता को
एक साथ जिया है मैंने
जब से घाट से उठ के आया हूँ
विचार और मै एक दुसरे का
पीछा कर रहा हूँ
कभी विचार मुझे झकझोरते हैं कभी मै उन विचारो को
कभी विचार मुझे झकझोरते हैं कभी मै उन विचारो को
मै ये चीख -2 कर सबको बताना
चाहता हूँ |
सबसे पूछना चाहता हूँ
प्रक्रति , प्रेम , इश्वर क्या यही सार है या इससे इतर भी है कुछ
प्रक्रति , प्रेम , इश्वर क्या यही सार है या इससे इतर भी है कुछ
श्रीनिधि मिश्र
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